पूजा का वास्तविक अर्थ क्या है?

हिन्दू धर्म में पूजा का बड़ा महत्व है। आप अपने आसपास बचपन से लेकर आज तक पूजा देखते सुनते आये होंगे।  हो सकता है कि आप बचपन से  पूजा करते भी चले आ रहे हों। बहुत से लोग दूसरों की देखा देखी पूजा करने लगते हैं। परन्तु क्या आप सही मायने में पूजा कर रहे हैं? क्या आप पूजा का वास्तविक अर्थ समझते हैं? और क्या आप अपनी पूजा से संतुष्ट हैं?

 

पूजा का सही मायने में अर्थ होता है, ईश्वर के किसी भी रूप की या किसी दूसरे देवी-देवता के प्रति अपनी श्रद्धा, समर्पण, विनय, और सम्मान का समर्पण करना। इसको आप इस तरह से समझ सकते हैं कि जैसे आपके घर कोई मेहमान आ जाये तो आप क्या करते हैं।  और यदि आपको मेहमान के आने की पूर्व सूचना हो तब आप क्या करते हो? जैसे आप अपने मेहमान के स्वागत-सत्कार में जी जान लगा देते हो उसकी खुशी के लिए घर आँगन की साफ-सफाई से लेकर घर का कोना-कोना और एक एक चीज का ध्यान देते हो। अगर आप उतनी ही श्रद्धा, भक्ति, विश्वास और समर्पण से ईश्वर की सेवा में अपना तन-मन समर्पित करते हैं तो आप वास्तव में सच्ची पूजा का वास्तविक अर्थ समझ सकते हैं।

 

पूजा के लिए पात्रता 

 

ईश्वर की पूजा करने के लिए आपको अपनी पात्रता सिद्ध करनी होगी। तभी आप सही मायने में पूजा कर पायेंगे जैसे भीलनी ने भगवान श्रीराम की पूजा की और माँ वेदवती विदुरानी ने श्रीकृष्ण की पूजा की। पूजा के लिए आपको तन और मन से पवित्र होना चाहिए।  भगवान ने कहा है, “मोहि कपट छल छिद्र न भावा”। निर्मल और निर्लिप्त भाव से ईश्वर की सेवा में पत्रं, पुष्पं, फलं, तोयं जो कुछ भी ईश्वर को अर्पण करेंगे ईश्वर उसे स्वीकार कर लेते हैं।  और जब आप ऐसा करते हैं तो आपको एक असीम आनंद की अनुभूति होती है।

 

पूजा का साधारण अर्थ

 

पूजा के कई अर्थ होते हैं। जैसे ‘एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति’ एक ही सत्य को लोग तमाम तरह के कहते हैं।

वास्तविक पूजा करने से आपका मन पवित्र होता है आपको संतुष्टि और आनन्द का अनुभव होता है।

वास्तविक पूजा के लिए आपको साधना, उपासना, अर्चना, वन्दना और प्रार्थना करनी चाहिए। साधना का मतलब अपने मन वाणी कर्म और अन्तः करण को शुद्ध और पवित्र करना, अपनी इन्द्रियों को साध लेना। उपासना ईश्वर के पास उपस्थित होने का अनुभव करना चाहे आप किसी मन्दिर में मूर्ति या घर में चित्र के सामने बैठें या एकान्त में ईश्वर को अपने आसपास अनुभव करें। जब  आप ऐसा अनुभव करेंगे तो आप ईश्वर को कुछ भेंट करेंगे यह अर्चना है जैसे आप किसी के पास जाते हैं तो उसे कुछ भेंट करते हैं। इसके बाद आप ईश्वर के नाम, रूप, गुण का गान करते हैं, यही वन्दना है। और जब आप ईश्वर को ऐसा सब देकर प्रसन्न करते हैं तब आप ईश्वर से प्रार्थना करते हैं और अपना अभीष्ट ईश्वर की प्रार्थना में व्यक्त करते हैं। अंत में आप ईश्वर से क्षमा याचन करते हैं कि हे! ईश्वर मुझ अकिंचन से आपकी पूजा में जाने अनजाने जो कमी रह गयी हो या कोई गलती हुई हो उसके लिए मुझे क्षमा कर दो।

 

पूजा के विविध प्रकार 

 

वैदिक काल से ईश्वर की पूजा अनेकों रूप में होती  चली आई है। उस समय ईश्वर की पूजा के लिए यज्ञ और हवन किये जाते थे। कालान्तर में मूर्ति पूजा शुरू हुई और भगवान का कण कण में वास मानकर नदी, पहाड़, जानवर, वृक्ष, पृथ्वी, आकाश और अग्नि पूजा होती चली आ रही है।

 

वास्तविक पूजा 

 

वास्तविक पूजा से हमारा मन भगवान में लगता है जो एक सर्वश्रेष्ठ पूजा है। हमारे सनातन परंपरा में  ईश्वर की षोड्सोपचार पूजा विधि भी बतायी गयी है, वैदिक व शास्त्रीय पूजा में ईश्वर की मंत्रोच्चार के साथ घर, मन्दिर, और तदर्थ पूजा स्थलों पर देवी-देवताओं के प्रतिरूप अथवा मूर्तियों की पूजा  आरती की जाती है। परन्तु अगर आपके पास कोई भी पूजा की सामग्री नहीं है तो भी आप ईश्वर की मानस पूजा कर सकते हैं।  आप अपने ईष्टदेव का ध्यान करें और उनके साथ एक संबंध स्थापित करें फिर ईश्वर के साथ बातचीत करते हुए उनकी पूजा करें।  इस मानस पूजा में आप ईश्वर को सभी भौतिक सामग्री अर्पित करें ईश्वर की सेवा करें  उनकी स्तुति, वन्दना और प्रार्थना करें।  अंत में क्षमा याचना करें।

पूजा का उद्देश्य

जैसे हर काम करने का कोई न कोई उद्देश्य होता है वैसे ही ईश्वर की पूजा का भी उद्देश्य होना चाहिए।  अगर आप अपनी किसी कामना के लिए पूजा नहीं कर रहे हैं तो भी पूजा कर रहे हैं तब आपका उद्देश्य जनकल्याण या विश्व के कल्याण और शांति के लिए होना चाहिए।  बिना उद्देश्य की पूजा का कोई अर्थ नहीं होता है।  आप प्राणियों के कल्याण के लिए ईश्वर की पूजा कर सकते हैं।

उपसंहार

सामान्य लोगों से ऊपर महात्मा लोग विभिन्न पूजाएं लोक कल्याण के उद्देश्य से करते हैं। ईश्वर के तमाम निर्गुण उपासक दिन-रात भजन- कीर्तन, और ईश्वर के नाम, रूप और गुणों का गायन, वादन  करके आनन्दरस को प्राप्त करते हैं यह भी ईश्वर की एक प्रकार की वास्तविक  पूजा है।
वहीं  पर कुछ ऐसे महापुरुष भी होते हैं जो अपनी पूजा या अनुष्ठान के पूरे होने पर अपने आराध्य  देवी-देवताओं के प्रति आभार व्यक्त करने और  उनकी कृपा हमेशा बनी रहे, इसलिए ईश्वर की  पूजा करते हैं।

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